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Wednesday, September 29, 2010

Krishna Prem

वह तो जगदीश थे
समस्त चराचर के स्वामी
हवा के चलने से
पत्ते के हिलने तक सब कुछ
था उनके अधिकार में
विश्वपति तो थे ही वो
मनुष्य लोक में भी
नरपति द्वारकाधीश कहलाए
जिसमें हो ब्रहमांड निहित
कौन थाह उसकी पाए?
वे रुक्मणी को हर लाएँ
या संग राधिका रास रचाएँ
उस असीम को सीमित कर दे
मैं भी जानूँ वो सीमा क्या है?
वरना कृष्ण प्रेम और ओम प्रेम में अंतर क्या है?
शक्ति जिनके वाम विराजे
उन्हे प्रेम फिर क्यों ना साजे?
उनके हाथ सुर्दशन चक्र
मेरे हाथ में बैसाखी
कृष्ण प्रेम था ललित बहुत
पर ओम प्रेम है कृष्ण नहीं
अनछुए वर्ण श्वेत की भांति
ललित प्रेम भी उज्जवल है
किन्तु मैं ठहरा
जीवन सागर में गोते खाते
निरीह प्राणियों से भी
निरीहतर प्राणी
मैं ओम वे तो कृष्ण हैं
मैं जीव वे तो परमात्मा हैं
वे ना जाने यह जीवन का आवर्तन क्या है
वरना कृष्ण प्रेम और ओम प्रेम में अंतर क्या है?

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